राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी: राष्ट्र निर्माण से राजनीति तक की यात्रा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी: राष्ट्र निर्माण से राजनीति तक की यात्रा

आरएसएस की विचारधारा से जन्मी भाजपा आज सत्ता के शिखर पर, पर क्या संगठन पर हावी होती जा रही है राजनीति?

 

मनोज तिवारी

भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा संगठन है जिसने पिछले सौ वर्षों में अपनी वैचारिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी सोच से गहरा प्रभाव छोड़ा है।
27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन नागपुर में स्थापित यह संगठन आज दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठनों में गिना जाता है।

संघ की यात्रा केवल शाखाओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने समाज, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति, श्रम, किसान और छात्रों तक अपनी पहुंच बनाई।
2025 में जब आरएसएस अपनी शताब्दी के शिखर पर खड़ा है, तब यह सवाल भी प्रासंगिक हो गया है कि — क्या अब संघ की विचारधारा पर भारतीय जनता पार्टी का राजनीतिक वर्चस्व हावी हो रहा है?

संस्थापक और विचार की नींव

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आरएसएस की स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। वे प्रारंभ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े थे, परंतु खिलाफत आंदोलन और कांग्रेस की तुष्टिकरण नीति से असहमत होकर उन्होंने हिंदू समाज को संगठित करने का लक्ष्य निर्धारित किया।
हेडगेवार विनायक दामोदर सावरकर के “हिंदुत्व” विचार से गहराई से प्रभावित थे। उनका मानना था कि भारत की एकता तभी सशक्त होगी जब हिंदू समाज आत्मबल और आत्मसम्मान से ओतप्रोत होगा।

संघ के शुरुआती दिनों में शाखाओं के माध्यम से अनुशासन, राष्ट्रप्रेम और एकता का पाठ पढ़ाया गया। धीरे-धीरे यह संगठन मध्य वर्ग, शिक्षित युवाओं और स्वदेशी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोगों के बीच लोकप्रिय हुआ।

संरचना और शाखा संस्कृति

आरएसएस की सबसे छोटी इकाई शाखा कहलाती है, जहाँ रोज़ाना शारीरिक व्यायाम, प्रार्थना और राष्ट्र सेवा की भावना का अभ्यास कराया जाता है।
संघ का शीर्ष नेतृत्व सरसंघचालक कहलाता है।
वर्तमान में यह जिम्मेदारी मोहन भागवत (2009 से) निभा रहे हैं।

संघ का प्रतीक भगवा ध्वज है — जो त्याग, वीरता और राष्ट्रसेवा का प्रतीक माना जाता है।
आरएसएस किसी पद, व्यक्ति या चुनाव से नहीं चलता, बल्कि अपनी अनुशासित शाखा प्रणाली के माध्यम से समाज निर्माण की दिशा में कार्य करता है।

प्रतिबंध और संघर्षों की यात्रा

आरएसएस को अपने इतिहास में तीन बार प्रतिबंध का सामना करना पड़ा —

1. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद,

2. 1975 में आपातकाल के दौरान,

3. 1992 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद।

 

हर बार जांच और राजनीतिक परिस्थितियों के बाद संगठन पर लगा प्रतिबंध हटा लिया गया।
इन संघर्षों ने आरएसएस को और अधिक संगठित, विचारधारात्मक रूप से स्पष्ट और आत्मनिर्भर बनाया।
संघ ने राजनीति से दूरी रखते हुए “राष्ट्र सेवा” और “चरित्र निर्माण” को केंद्र में रखा, लेकिन उसके स्वयंसेवक धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने लगे।

संघ परिवार का विस्तार और राजनीति का उदय

आरएसएस से निकला “संघ परिवार” आज भारत का सबसे बड़ा विचार नेटवर्क बन चुका है।
इस परिवार में प्रमुख संगठन हैं —

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) – राजनीतिक मंच

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) – छात्र संगठन

भारतीय मजदूर संघ (BMS) – श्रमिक संगठन

विश्व हिंदू परिषद (VHP) – धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन

सेवा भारती, संस्कार भारती, वनवासी कल्याण आश्रम जैसी अनेक सामाजिक इकाइयाँ।

आरएसएस का प्रभाव भाजपा की नीतियों और नेताओं में स्पष्ट झलकता है।
चाहे वह स्वदेशी अर्थनीति का विचार हो, राम मंदिर आंदोलन हो या आत्मनिर्भर भारत का नारा — इन सभी में संघ की वैचारिक छाप मौजूद है।

वर्तमान परिदृश्य (2025 तक)

आज आरएसएस की देशभर में 80,000 से अधिक शाखाएँ संचालित हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह — सभी का मूल प्रशिक्षण आरएसएस से ही जुड़ा रहा है।

मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ अब “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” से आगे बढ़कर सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, गौ सेवा, स्वदेशी उद्योग और परिवार प्रबोधन जैसे मुद्दों पर भी सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

विचार और सत्ता के बीच संतुलन का प्रश्न

हालांकि अब यह बहस तेज हो रही है कि भाजपा की राजनीतिक शक्ति ने कहीं न कहीं संघ के वैचारिक प्रभाव को पीछे छोड़ दिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं आरएसएस के प्रचारक रहे हैं, परंतु सत्ता के शिखर पर पहुँचने के बाद उन्होंने संघ की पारंपरिक मर्यादाओं से अलग एक व्यक्तिगत नेतृत्व केंद्रित राजनीति स्थापित की है।

संघ की नीति में हमेशा “सामूहिक नेतृत्व” और “आयु सीमा” जैसे अनुशासनात्मक सिद्धांतों पर बल दिया गया है।
भाजपा ने भी अपने संविधान में 75 वर्ष की आयु सीमा निर्धारित की थी, जिसके बाद वरिष्ठ नेताओं को सक्रिय राजनीति से दूर रखा गया।
लेकिन अब स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं 75 वर्ष की आयु सीमा के करीब पहुँचने के बाद भी सत्ता की कमान अपने हाथों में मजबूती से थामे हुए हैं

यह वही नीति विरोधाभास है जिसने राजनीतिक विश्लेषकों के बीच चर्चा छेड़ दी है कि —
“क्या भाजपा अब संघ की अनुशासित सोच से अलग होकर एक व्यक्ति केंद्रित संगठन बनती जा रही है?”

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्षीय यात्रा संघर्ष, समर्पण और संगठन के अनुशासन की मिसाल है।
यह संगठन केवल एक वैचारिक मंच नहीं, बल्कि एक ऐसी विचारधारा है जिसने भारत के राष्ट्रवादी मानस को दिशा दी।

आज भाजपा के रूप में उस विचारधारा का राजनीतिक रूप सामने है, लेकिन शक्ति और विचार के इस संबंध में अब नया समीकरण बनता दिख रहा है।
संघ जहां “राष्ट्र निर्माण” की बात करता है, वहीं भाजपा “सत्ता निर्माण” में केंद्रित होती जा रही है।

100 वर्षों की यात्रा के इस मोड़ पर, यह प्रश्न अब भी महत्वपूर्ण है —
क्या आरएसएस अपनी मूल विचारधारा और अनुशासन के साथ आगे भी स्वतंत्र रूप से समाज में अपनी भूमिका निभा पाएगा,
या फिर राजनीति की चमक में उसका वैचारिक तेज धीरे-धीरे धूमिल हो जाएगा?

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